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Tuesday, September 6, 2011

" वो गजल कहाँ से लाऊ ... ?" - लैला मजनू "



" वो ग़ज़ल कहाँ से लाऊ जो तेरे दिल में उठे तूफान को शांत कर सके , हर ग़ज़ल के सिने में जो दर्द दफ़न था ... | "

* " तड़प ,प्यास ,दर्द और ग़ज़ल | "
" क्यों होता है ,इतना सारा दर्द दफ़न "ग़ज़ल" में ? ... जिसके हर अल्फाज़ में एक तड़प होती है ,एक प्यास होती है जो प्यास कभी बुज नहीं सकती मानो ग़ज़ल में डूबते ही आपको समन्दर से भी ज्यादा गहेराई महसूस होती हो और उस गहेराई में छिपे दर्द जब आपके ह्रदय के किसी कोने के तार को जिन्जोड़ता है तब दिल में उठनेवाले तरंग से मस्तिष्क कहेता है ..तु डूबा रहे और आँख दर्द से तड़प उठती है ..शायद किसी "दिलजले" के अश्क से बनती है ग़ज़ल|"

* " लैला की कब्र पर थिरकते अल्फाज़ ... | "

" लैला की कब्र पर थिरकते अल्फाज़ याने ग़ज़ल ,मजनु का दीवानापन याने ग़ज़ल ..दर्द और तड़प ये दो किनारों को जोडती हुई बहेती नदी याने ग़ज़ल ...डूबने दो ,डूबने दो उस ग़ज़ल में ..जहाँ दर्द आँखों में उतर आता है और दिल की हर गलियों में जहाँ तड़प थिरकती हो और वो तडपाहट में लबो के द्वारा सुनाई जाती ग़ज़ल याने " मौत " को भी सुनहरा बनानेवाला जैसे कोई " संगीत " हो ..मानो लैला की आह याने ग़ज़ल ,मजनु की तड़प याने ग़ज़ल ...हीर की पुकार याने ग़ज़ल ,रांझे का दर्द याने ग़ज़ल ....उफ्फ्फ ये ग़ज़ल ! .... |"

* " भरे जाम को चूमेगा कौन ? "

" बुनकर "शायरीयों का कफ़न" ये ग़ज़ल क्यों बनती है ? ..ये पुछो " लैला मजनु , हीर रांझे " से कोई क्यों की, प्यार में फ़ना होनेवाले ही बुनते है "शायरीयों का कफ़न " जिसे ग़ज़ल कहते है .."लैला मजनु ,हीर राँझा" मीट तो जाते है मग़र दुनियाँ के लिए छोड़ जाते है उनकी दर्द भरी "शायरीयों का कफ़न" ..ये ग़ज़ल | जो कभी मिट नहीं सकती ,क्यों की "शायरी" से भरे " जाम " को वही चूम सकता है जो दर्द से गुजर कर ..तड़प को तडपाकर अपनी जिन्दगी निचोड़ सके ..दर्द में कलम डुबोकर अश्कों के सहारे लिखी जाती है ग़ज़ल ... क्यों की अश्क सा पवित्र कोई नहीं है शायद इसीलिए ही बेपनाह महोबत करनेवालों को इम्तिहान में ...अश्कों की बहेती चादर याने धारा पर ..दर्द भरे अल्फाज़ बिखेरने पड़ते है | "

* " रात के गर्भ से सूरज का जन्म होता है ..... | "

" ग़ज़ल सुनते है " कान " ..असर होता है "दिल और दिमाग " पर ,जिसका सबूत देती है " आँखे ....गर्म बहते अश्कों की धार में बुनी हुई "ग़ज़ल "..आँख में बसी " सनम " का साथ छोड़कर जब " जमीन " को चूमकर बिखर जाती है तो ऐसा लगता है की " लैला या मजनु " का सपना टूटकर बिखर गया हो ..और उस बिखरे सपनों में से फिर से जन्म लेती है कोई दर्द भरी ग़ज़ल ..जैसे " रात के गर्भ से सूरज का जन्म होता है ..... | "


- शेष अगले हफ्ते


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2 comments:

  1. गज़ल का सुरुर छाया है पूरी पोस्ट में...आगे इन्तजार है.

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  2. भैया दिल निकाल कर रख दिया है आपने यहाँ

    गजल तो सिर्फ बहाना है असल में तो आपको आपके दिल की बात को भाभी तक पहुँचना है

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